Tuesday 26 December 2017

कुछ पंक्तियाँ



ऐ ज़िन्दगी तू 
इतना क्यों रुलाती है मुझे 
ये आँखे है मेरी 
कोई समंदर या दरिया नहीं 

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गुज़रे हुए कल 
मैंने तो हद कर दी 
वक़्त से ही वक़्त की 
शिकायत कर दी 

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मेरी मुस्कान गिरवी 
रखी थी जहाँ
वो सौदागर ही न जाने 
कहाँ गुम हो गया
न तो मेरी चीज़ लौटाई
न ब्याज़ बताया

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तुमने मुझ पर दोस्ती के हक
अदा न करने के सौ इल्ज़ाम लगाए
पर एक भी इल्ज़ाम को 
तुम साबित नहीं कर पाए

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काश मुश्किलें एक दिन 
मुझसे कहें की 
आज मैं तेरे आशियाने 
का पता - ठिकाना ही भूल गयी 

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माँ है वो तेरी
कोई चट्टान नहीं
वो अल्फ़ाज़ मत लौटा उसे 
जो उसने तुझे कभी
 सिखाये ही नहीं 

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तुमने कभी कुछ बोला ही नहीं 
की रास्ते में दोबारा 
मुलाक़ात होगी की नहीं 
और मैं खामखां 
इंतज़ार शब्द को 
अपनी वसियत लिख बैठी 

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आज हवाओं में बहुत शोर है 
लगता है गली में 
खुशियाँ बेचने वाला 
सौदागर आया है | 

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Wednesday 13 December 2017

बेजान यादें


इस वर्ष श्राद्ध में
मैंने तुम्हारी यादों का 
तर्पण कर दिया 
जो वर्ष पहले
धीरे धीरे मर रही थी |
तुम्हारी याददाश्त में भी 
मैं ज़िंदा कहाँ थी ?

उन बेजान यादों को 
दिल की ज़मीं से 
खाली करना
मेरा मन बार बार
न चाह कर भी 
उस ज़मीन को 
टटोलता रहता की 
शायद कहीं कोई याद
खरपतबार बनके
दोबारा पनपी हो 
शायद जंगली हो गई हो
उन्हें तरतीब से सजा दूंगी 
पर नहीं वो बंजर हो चुकी थी 
अब भटकना नहीं था 
उनको आत्मा की तरह 

इसलिए इस बार मैंने 
उनका तर्पण कर दिया
तिल और कुशा के साथ 
वो पवित्र जल 
के साथ दूर कहीं बहती गई
मैं बंधन मुक्त हो गई 
तुम्हें आज़ादी दे कर 

कहते हैं
अंजुली के पानी में 
तिल और कुशा 
डाल कर तर्पण करने से 
कुछ भी वापिस नहीं आता