Saturday 11 June 2016

चाँद का पैगाम


कल जब परदेस में
तनहा बैठा था मैं 
मेरे देश के चाँद ने हौले से कहा 
वापस आजा ओ परदेसी 
तेरे देश में भी मैं चमक रहा 
उन सिक्को की आबोताब में 
मत खो जा 
तेरे अपने बड़े बेसब्री से 
राह तक रहे हैं 
जा उनका रुखसार चमका 
बेजान कागजों के ढेर 
अपने रिश्तों को
पाने में कर देगा देर 
माँ का आखिरी सांस तक इंतज़ार 
नहीं दोबारा कर पाएगा 
पिता से आँखें चार 
जिसे छोड़ गया था सावन में 
वो मौसम सिमट गया है 
उन दो आँखों के आँगन में 
बिन बादल बरस जाती है 
भिगो जाती है सुर्ख दामन 
कोई तेरा अपना 
तुझसे सवाल कर रहा 
कुछ तो बता जा 
कब तू इधर का रुख कर रहा 
तेरी पेशवाई के लिए 
वो ढेरों ख्वाब बुन रही  
फिज़ाओं में घुल जाने दे 
तेरी हसी जिसने औरों को खामोश कर रखा