Friday 31 July 2015

तक़दीर का कैनवास


बड़े ही ख़ूबसूरत रंगों से भरा हुआ था
ज़िंदगी का कैनवास 
अचानक से सारे रंग छलक गए
वो मेरे सूर्तेहाल और मुसतकबिल को 
पूरा का पूरा भिगो गए 
अब नया कैनवास है 
उसके लिए नहीं बचा कोइ रंग 
नया कैनवास मेरे वजूद की 
पहचान बन गया है 
डर लगता है 
रंगो को छूने में, क्योंकि?
छलके थे जब सारे रंग 
मिलकर बन गए थे स्याह रंग 
जिससे बनती है ख़ौफ़नाक तस्वीर
जिससे लिखी जाती है 
एक अपमान वाली भाषा 
जिससे बनती है भयानक आँखें
जो बंद दरवाजे के बाद भी घूरती रहती है 
उस कैनवास में अब
बिना रंगो वाली तस्वीर बन गई है 
जिसमें नजर आते है 
हिरास, बदर्जए-मजबूरी, बदरौनक और हिज्र 
उस कैनवास को स्याह रंगों से बचा कर रखना
बमुशिकल है ।

Friday 24 July 2015

तुम्हारा प्यारा सा नाम


तुम आती हो नए घर संसार में 
सपने हजारों हैं अपनों के प्यार में 
सुबह मंदिर की प्रार्थना में 
औरों का दुख दर्द
मांगती अपने हिस्से में 
सबको खिलाने के बाद 
आधे पेट खाने से ही हो जाती तृप्त
तुम्हारा पसीना है टपकता 
सारा आशियाना है चमकता
रसोइ का धुअाँ बहुत गहरा
तुम्हारा अस्तित्व नहीं कुछ कह रहा
घर के अंदर से बाहर तक 
उसी के कंधे पर है टिकी
घर की एक -एक मंयार
तुम खो गई उस घर में
पर जब घर के द्वार पर दस्तक होती है  
हर कोइ पूछता है 
दरवाज़े पर लगी नेम-प्लेट वाले शख्स को 
तुम्हारा नाम उस घर में कहीं गुम गया है
तुम्हें तो रिश्ते आपना नाम दे चुके हैं
पत्नी, बहू, माँ और भाभी का
कब वक्त आएगा कि लिखा हो 
घर के बाहर तुम्हारी पहचान के साथ
तुम्हारा प्यारा सा नाम

Saturday 18 July 2015

केसी ये तेरी रज़ा



तूने कभी मुझे चाहा ही नहीं
पर तूने मुझे प्यार के भ्रमजाल में भरमाया तो सही
तेरी बातें कच्चे रंग सी धुल के निकली
तेरे वादे बिन पानी वाले बादलों से हल्के निकले 
सच्चे प्यार में तूने वफ़ा की आजमाइश की 
और तूने बेवफ़ाइ की हद पार की 
मैने तो अख़िरि सांस तक किया तेरा इतंजार
पर तूने तोड़ डाली मेरी आस की पतवार
प्रेम की परिभाषा पढ़ने के तेरे तरीके कभी थे ही नहीं सही
पर तूने मेरे मरने पर झूठा मातम मनाया तो सही
तू मेरी कबर पर आया तो बार-बार 
पर गुलाब में छुपा कर कांटे भी लाया हजार 
केसी ये तेरी रज़ा
देती रही मुझे हर पल सज़ा

Tuesday 14 July 2015

कीमती मोती



आज मैने आँसू की एक बूंद में 
बहुत सारे अक्श हैं देखे
वो तेरी मेरी उसकी आँख का पानी
सबकी अलग है कहानी
बचपन के मासूम मोती 
जब आँखों में भर आएँ
माँ कुछ देर भी गर
आँखों से ओझल हो जाए
किशोरों की आँखें
अचानक से कब भर आएँ
व्याकुल मन का पंछी
पिंजरा तोड़ने को झटपटाए
युवा मन और ख़ामोश सिसकियाँ
एकांत में घंटों भिगोते सिरहाने
नाकामि, विरह, त्याग
अनगिनत कहानियाँ 
एक प्रोढ़ आँखों के आँसू
बेटा चला गया विदेश
बेटी को बिदा किया परदेस
बड़े दिनों के बाद उनकी आती है जब चिठ्ठी
रुला जाते हैं उनके न आने के कारण
एक वृद्ध की आँख़ों के आँसू
सिर्फ आँसू ही आँसू
फर्श पर बेटे की मौत बिख़रि पड़ी
उसकी किरचें आँखों में है गढ़ी
औलाद का गम, जिसकी थी जीने की उम्र
कहीं जीवनसाथी अलविदा कह गया
अकेलेपन की सज़ा दे गया
इस उम्र का आँसू
जो सूखता भी नहीं
रुकता भी नहीं
और बहता भी नहीं 

Saturday 11 July 2015

मै कौन हूँ ?


मै कौन हूँ और क्या हूँ
क्या तुम मुझे हो जानते
बस चंद है मेरी ज़रूरतें 
किताब की दुकान देख रुक जाती हूँ 
अच्छे और सुंदर सफे लिए बिना रह नहीं पाती हूँ
सुंदर कलम तलाशती आँखें
सांसारिक रंग ढ़ंग कुछ नहीं आता 
बस कुछ लिख़ने के लिए एकांत मुझे है भाता 
सुकून मिलते ही 
मृगमरिचिका ख़ींचती है मुझे 
पानी की तलाश की तरह विषय ढ़ूँढती आँखें
सफेद वस्त्रों पर
काले मुखौटों पर 
इंसान के अंदर का जानवर या जानवर में छुपा इंसान
देश विदेश और समाज
वो मधुशाला और टूटते प्याले
नायिका का विरह 
नायक की मौत
आँसुओं का सैलाब 
वो बेवफ़ाइ का आलम 
क्या कुछ नही देखता अपनी अंदर की आख़ों से 
बेहतर सृजन की कोशिश में बीतता दिन 
अजनबी रुक जाओ
कैसी लगी मेरी रचना इतना बताते जाओ
मै तुम्हें नहीं जानती पर 
हमारी रचनाओं की आपस में गहरी दोस्ती है

Wednesday 8 July 2015

कंकड़ सा मैं, मोती सी तुम - मुदित श्रीवास्तव



कंकड़ सा मैं मोती सी तुम 
आकार भले ही समान हो 
प्रकार है लेकिन भिन्न 

कंकड़ मैं बदसूरत 
न चमक न कोई रंग ढंग का 
मोती तुम सफ़ेद झक्क 
है चमक और है ख्याती तुम्हारे अंग का

कंकड़ मैं नाकारा सा 
कही भी मिल जाऊं मुंह उठाकर
मोती तुम उत्कृष्ठ सी 
रख ले हर कोई अंगुल या कंठ में 
मालाओं में पिरोकर, सजाकर 

कंकड़ मैं कठोर सा 
मरा हुआ, निर्जीव 
पैरो में लोगो के तले पड़ा हुआ 
मोती तुम मर्म सी 
प्रिय हो लोगो को 
अस्तित्व है, तुम्हारा 
लोगो की उंगलियो में जड़ा हुआ 

है कैसे संभव मेल 
एक कंकड़ का एक मोती से 
तुम रईसों की ठाठ हो 
और मैं बच्चों का खेल 

- मुदित श्रीवास्तव

Friday 3 July 2015

तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन


तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन
जब गिरता था सूखी धरती पर 
वो बारिश का पहला पानी
सारे अरमानों को जगा देती थी
मिट्टी की सौंधी खुशबू
 दिल की किताब के जब पलटते हैं पन्ने 
उस बारिश की एक बूंद
अब भी आँखों में कहीं अटकी हुई है 
वो बारिश में भीगनें की उम्र 
छप -छप करते तेरे वो कदम 
पायल के घुंघरू की आवाज़ मुझे बुलाती थी 
झलक दिख जाती अगर वो
बारिश की बूदें हथेली पर समेटने छत पर आती 
उतना ही काफी था तमाम बंदिशों में
दिल कुछ और ज़्यादा नहीं मांगता था 
तुम्हारी वो झलक ज़हन में
अब भी कहीं कैद है
बस वक्त के साथ उड़ गई
वो मिट्टी की और यादों की खुशबू
अब बारिश आती तो है
पर दिल को नहीं छूती
अब तो बस यादें हैं 
एकांत में मुस्कुराने के लिए
तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन ।